❤️श्री श्यामा कुंजबिहारी❤️

 
❤️श्री श्यामा कुंजबिहारी❤️
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कबहुँ पिय हरपि हिरदै लगावै। कबहुँ लै-लै तान नागरी सुघर अति, सुघर नँद-सुवन को मन रिझावै। कबहुँ चुंबन देति, आकरषि जिय लेति, गिरति बिनु चेत, बस- हेत अपनें। मिलति भुज कंठ दै, रहति अँग लटकि कै, जात दुख दूरि है। झझकि सपर्ने । लेति गहि कुचनि विच, देति अधरनि अमृत, एक कर चिबुक - इक सीस धारै॥ सूर की स्वामिनी, स्याम सनमुख होइ, निरखि मुख नैन इक टक। निहारै
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